स्कन्दपुराण के अनुसार एक बार भगवान शिव ने देवी पार्वतीजी को भगवान विष्णु के शयनकाल (चातुर्मास)में द्वादशाक्षर मन्त्र (ॐ नमो भगवते वासुदेवाय)का जप करते हुए तप करने के लिए कहा। पार्वतीजी शंकरजी से आज्ञा लेकर चातुर्मास शुरू होने पर हिमालय पर्वत पर तपस्या करने लगीं। पार्वतीजी के तपस्या में लीन होने पर शंकर भगवान पृथ्वी पर विचरण करने लगे। भगवान शिव यमुना के किनारे हाथ में डमरु लिए,माथे पर त्रिपुण्ड लगाए,बढ़ी हुईं जटाओं के साथ मनोहर दिगम्बर रूप में मुनियों के घरों में घूमते हुए नृत्य कर रहे थे। कभी वे गीत गाते,कभी मौज में नृत्य करते थे तो कभी हंसते थे,कभी क्रोध करते और कभी मौन हो जाते थे। उनके इस सुन्दर रूप पर मुग्ध होकर बहुत-सी मुनि पत्नियां भी उनके साथ नृत्य करने लगीं।
मुनिजन शिव को इस वेष में पहचान नहीं सके बल्कि उन पर क्रोध करने लगे। मुनियों ने क्रोध में आकर शिव को शाप दे दिया कि तुम लिंगरूप हो जाओ। शिवजी वहां से अदृश्य हो गए। उनका लिंगरूप अमरकण्टक पर्वत के रूप में प्रकट हुआ और वहां से नर्मदा नदी प्रकट हुईं और शिव की स्तुति की।तब शिवजी ने वरदान दिया कि हे ’नर्मदे! तुम्हारे तट पर जितने भी प्रस्तरखण्ड (पत्थर) हैं, वे सब मेरे वर से शिवलिंगरूप हो जाएंगे और तुम्हारे दर्शनमात्र से सम्पूर्ण पापों का निवारण हो जाएगा। यह वरदान पाकर नर्मदा भी प्रसन्न हो गयीं। इसलिए कहा जाता है–‘नर्मदा का हर कंकर शंकर है। इस कारण नर्मदा में जितने पत्थर हैं, वे सब शिवरूप हैं।